“रुपकुंड
मै खड़ा शांत निश्चल हूँ |
क्यूँ सुन्न शून्य सा मौन हूँ |
ऊँची पर्बत की शिखरों सा,
क्यूँ निःशब्द अचल स्तब्ध हूँ |
हिम की वर्षा हो रही,
सामने योगी हिमालय है |
गर्भ में है ऊर्जा उष्ण सी,
ये कंकालों का कुंड़ है |
शांतता बसती यहाँ,
लेकर अंदर आग है |
मृत्यु का वह साक्षी,
शापित दग्ध कुंड़ है |
है कई गहरे राज़ यहाँ,
मिट्टी का कणकण है जानता |
पर ओढे़ बर्फ की चादर घनी,
वो कुंड़ इसे है छिपाता |
पर यह चुप्पी भी अजीब है,
इसकी भाषा थोड़ी भिन्न है |
मौन की भाषा जिसको समझे,
वही कुंड़ के समीप है |
पवन हुआ है शांत आज,
कोने में छोटा मंदिर है |
उस घटना की कहानी सुनाता,
सामने नंदा त्रिशूल है |
मैं भी हूँ मौन खड़ा,
सून राहा हूँ पुकार उसकी |
भूतकाल का भेद बताती,
पल पल है शांती जिसकी |
देह की यात्रा हुयई समाप्त,
उसके निशान अभी कायम हैं |
अस्थियों को है सँभाले,
वह धीरगंभीर कुंड़ है |
© ओंकार जोशी”
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